बिहार :जातिगत समीकरणों ने किया बिहार का बंटाधार , हाशिए पर विकास

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राजेश दुबे

जाति और संप्रदाय बिहार की राजनीति के  केंद्र में रहे है। 1990 के बाद इसने और जोर पकड़ा जिसके बाद शायद ही कोई राजनैतिक दल इससे अछूता रहा है । जाति और धर्म आधारित चुनावी गठबंधनों का ही नतीजा रहा कि बिहार में विकास कभी मुद्दा नहीं बन पाया ।

राजनैतिक दल अपनी सुविधा के आधार पर एक दूसरे से गठबंधन करते रहे और जनता इनके दिखाए सब्जबाग में उलझ कर इसी गिनती में लगी रही कि फलाना पार्टी ने हमारी जात के इतने उम्मीदवारों को टिकट दिया है ।

1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्य मंत्री बने और उन्होने MY (मुस्लिम -यादव )  समीकरण का नारा दिया और इस नारे के जरिए 15 वर्षों तक सत्ता पर आसीन रहे । इन 15 वर्षों में लालू यादव बिहार को कहा ले गए यह किसी से छुपा हुआ नहीं है । “भुरा बाल साफ़ करो” जैसे नारे देकर आपसी वैमनस्यता को उन्होंने बढ़ाया, अकूत संपत्ति अर्जित की ,खुद की भी झोली भरी और रिश्तेदारों की भी झोली भरने का काम किया।

फिर आया  2005  जंगल राज का नारा जोर शोर से देकर सहयोगी बीजेपी के कंधे पर सवार होकर  नीतीश कुमार बिहार के मुख्य मंत्री बने ।नीतीश कुमार आए तो थे ,जंगल राज से मुक्त करवा कर बिहार में विकास की गंगा बहाने लेकिन सत्ता प्राप्ति के कुछ ही दिनों बाद  सियासी गलियारे में कुर्मी,पिछड़ा ,दलित ,मुस्लिम समीकरण बनाया जाने लगा और नीतीश कुमार ने दलितों में भी एक अलग श्रेणी बनाने का काम किया महादलित , ताकि अपने वोट बैंक को सुरक्षित कर वो निर्विरोध सत्ता के सिरमौर बने रहे ।

श्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने इन 15 वर्षों में खुद को स्थापित करने  और मुस्लिम समाज में अपनी पकड़ बनाने के लिए बीजेपी से भी खुद को अलग करने से गुरेज नहीं किया था और दुबारा आरजेडी के साथ शामिल हो गए थे, जिसकी वजह थी मुस्लिम वोट बैंक को हासिल करना और सत्ता में बने रहना ।खैर ये तो पुरानी बात हुई ।बात करते है 2020 विधान सभा चुनाव की ।

इस चुनाव में भी बिहार में चुनाव लड़ने वाले जितने भी राजनैतिक दल है उन्हें अपने काम काज पर शायद ही भरोसा है ।महागठबंधन से अलग हुए रालोसपा सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा ने  AIMIM से हाथ मिला लिया ताकि मुस्लिम मतदाताओं में पकड़ बनाई जा सके तो, वहीं बीजेपी ने मुकेश साहनी को अपने साथ मिला कर पिछड़ी जाति माने जाने वाली निषाद के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश की है ।

जदयू ने भी डोरे डाल कर जीतन राम मांझी को अपने साथ मिला लिया । जबकि महागठबंधन में राजद , कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई जैसी पार्टियां शामिल है ।

पप्पू यादव की पार्टी जाप ने भीम आर्मी के चन्द्र शेखर आजाद उर्फ रावण से गठजोड़ किया और दलित यादव समीकरण बना कर ताल ठोक रहे है ।

इस चुनाव में पहली बार किस्मत आजमाने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी की पार्टी plurals ही एक मात्र ऐसी पार्टी है, जिसका अभी तक किसी से गठबंधन नहीं है ,यही नहीं इस पार्टी के द्वारा जो उम्मीदवारों कि घोषणा कि गई है उनकी जाति के स्थान पर प्रोफेशन और धर्म के स्थान पर बिहारी लिखा गया है ।जो कि बिहार की जनता को कितना लुभा पाएगा वो तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा क्योंकि बिहार की राजनीति में जाति ने इतना गहरा पैठ बना लिया है कि राजनैतिक दल संगठन का पद भी आज कल जाति देख कर ही देने लगे है ।जिसका उदाहरण सीमावर्ती किशनगंज में कुछ दिन पहले देखने को मिला था जहा बीजेपी महिला मोर्चा द्वारा गठित कार्यसमिति कि सूची में जाति का उल्लेख किया गया था।

जातिगत समीकरण और तुष्टिकरण कि राजनीति ने विकास को हाशिए पर धकेलने का काम किया है ।इस विधान सभा चुनाव में भी नेता अपनी जात के सहारे सत्ता की मलाई चखना चाहते है । 15 साल बनाम 15 साल के मुद्दे पर चुनाव लड़ने कि बात  भले ही सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन कर रही हो लेकिन किए गए गठबंधन से ही समझा जा सकता है की सरकार अपने द्वारा किए गए कार्यों से कितना संतुष्ट है ।

इंटर कास्ट मैरेज करने वालो को बिहार सरकार भले प्रोत्साहित करती हो ।लेकिन चुनाव में राजनैतिक दल उसी को प्राथमिकता के आधार पर टिकट देते है जिनकी जनसंख्या विधान सभा क्षेत्र में अधिक हो ।

जातीय समीकरण और धार्मिक गठजोड़ पर विराम कब और कैसे लगेगा ? रोजगार ,पलायन ,शिक्षा ,स्वास्थ के मुद्दे पर कब चुनाव होंगे यह सवाल नई पीढ़ी के जेहन में बार बार उभरती है लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

बिहार :जातिगत समीकरणों ने किया बिहार का बंटाधार , हाशिए पर विकास