सिसकती तड़पती बिलखती है बेटी,
यहां हर कदम रोज़ लुटती है बेटी।
बयां क्या करूँ मैं दरिदों की खसलत,
जन्म लेने से पहले ही मरती है बेटी।
वो कान्हा वो मोहन कहाँ खो गए हैं,
यहाँ द्रोपदी सी, न बचती है बेटी।
ये सच है इसी के ही दम से गुलशन,
मग़र कुछ दरिन्दों को खलती है बेटी।
ये लक्ष्मी है घर की खुदा की है रहमत,
तो सीता सी क्यों फिर जलती है बेटी।
है ममता की मूरत, है मासूम सूरत,
मुहब्बत को फिर क्यों तरसती है बेटी।
बना दे इन्हें जो “मलिका” ज़माना
फूलों सी फिर तो महकती है बेटी।
~निधि चौधरी
किशनगंज, बिहार
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