बम बारूद बंदूक और बंगाल !

SHARE:

सुशील दुबे

अंग्रेजी में एक बहुचर्चित कथन है बंगाल के संदर्भ में।
What bengal thinks today, india will think tomorrow.
उपरोक्त कथन न सिर्फ बंगाल की दूरदर्शिता की बात करता है अपितु समृद्ध बौद्धिक, समाजिक एवम सांस्कृतिक विरासत के दृष्टिकोण पर भी प्रकाश डालता है।

यह बंगाल ही था, जहाँ खुदीराम बोस जैसे माँ भारती के सपूत ने कम आयु में राष्ट्र की खातिर अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया।

यह विवेकानंद का अध्यात्म ही था कि वे समूचे विश्व को सनातन धर्म की वैज्ञानिकता और सारगर्भित संदेशों से शिकागो धर्म सम्मेलन में विदेशियों को उनके ही देश मे उनके ही भाषा मे समझा कर चले आए थे।

सुभाषचंद्र बोस जैसे प्रतिज्ञा धारी योद्धा जिन्होंने स्वयं ही आज़ाद हिंद फौज खड़ी कर अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ा दी।

यह गुरु आज्ञा का पालन ही था कि श्री प्रभुपाद बुढ़ापे में जिस अवस्था में लोग नाती पोता संग समय बिताने की सोचते हैं, आप जलयान में बैठ महीनों की यात्रा कर अनजान विदेशी धरती पर कृष्ण प्रेम की ऐसी जोत जगा आए कि आज इस्कॉन जैसी विश्व व्यापी संस्था बन गई।

चाहे आध्यात्मिकता की बात रही हो, वैज्ञानिकता की, सांस्कृतिक विरासत हो या फिर राजनीतिक समझ की, बंगाल ने कई मायनों में देश मे वैचारिक क्रांति पैदा की।

ऐसे में जब बंगाल की बात आज के परिदृश्य में हो तो कई चित्र उठ जाते हैं।

भूगौलिक क्षेत्र की दृष्टि से 3 देशों से घिरा हुआ नेपाल, भूटान और बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को भारत से जोड़ता हुआ पश्चिम बंगाल।

बात बंगाल की हो तो वामपंथ का गढ़ माना जाने वाला बंगाल मार्क्स , लेनिन, चे गुएरा और फिदेल कास्त्रो जैसे वामपंथी विचारकों के “बंदूक से होगी क्रांति” की सीख ले कर आज माँ – माटी – मानुष तक का सफर कर चुका है।

नक्सलवाद के विचार से सामंतवाद के खिलाफ और सत्ता की मशीनरी का राजभोग और उपयोग बंगाल ने बखूबी दिखाया है।

बंगाल में कत्लेआम का दौर आज़ादी के पहले भी था और बाद में भी बरकरार ही रहा।

तो 1967 वह वर्ष था जब बंगाल के मार्क्सवादी सत्ता सुख प्राप्त कर चुके थे। लाल सलाम हर चौक चौराहे पर छाया हुआ था।

कांग्रेस का जनाधार बंगाल में विलुप्त हो रहा था, यह ऐसा समय था जब मार्क्सवादी विचारधारा के कॉमरेड खुलेआम हथियार लहरा कर जान लेने देने की बात कर किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना चाहते थे।

इनकी वीभत्सता का अंदाजा और राजनीतिक घृणा की सोच का सबसे बड़ा उदाहरण 3 वर्ष बाद 1970 ही खुल कर सामने आ गया। जब बर्धमान जिले के काँग्रेस पार्टी के खांटी कार्यकर्ता साई परिवार को कई धमकियों के बाद काँग्रेस छोड़ वामपंथ का झंडा न उठाने के लिए काट डाला गया।

इस खूनी खेल का अंत यही नही था, साई परिवार के बेटों को मार कर उनके रक्त से सने चावल को उनकी ही माँ के मुख में भर दिया।
और इस घटना के मुख्य अभियुक्त रहे निरुपम सेन इसी सरकार में काफी उच्च पदों पर आसीन रहे।

साल था 1971, बंगलादेश का बटवारा हो चुका था, कई शरणार्थी बंगलादेश से भाग कर पाकिस्तानी सेना के आतंक से बचने के लिए बंगलादेश बॉर्डर से सटे सुंदरवन के जंगलों में छिप कर पनाह लिए हुए थे।

इनमें औरतों और बच्चों की संख्या भी काफी थी।
सभी भूख प्यास से बेहाल थे।जब देखा कि कई बोट इनकी तरफ आ रही है तो ये मदद की आस में उनकी तरफ चल पड़े।

तभी अचानक चारो तरफ से फायरिंग शुरू हो गई, किसी को भागने का ,बचने का मौका भी नही मिला। संख्याओं को तोड़ मरोड़ कर झूठे आँकड़े दिए गए क्योंकि शरणार्थियों के पास कोई नागरिकता प्रमाण नही था। बाद में खबर बनी की डाकुओं से मुठभेड़ हुई।

हाल की बात करे तो साल 2000 के जुलाई महीने में बीरभूम जिले के सचपुर गाँव में 11 भूमिहीन तृणमूल समर्थकों की हत्या कर दी गयी थी।

समय बदला और जनता के आक्रोश ने वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंका।

नई सरकार में ममता बनर्जी ने सत्ता सम्भाला और राजनीतिक एजेंडा को एक नए प्रयोग की तरह शुरू किया।

जिस सत्ता को बम बंदूक और बारूद के दम से मार्क्सवादी बचते बचाते हुए आए, उसी तरह ममता बनर्जी ने भी कई तरीकों से सत्ता को बचाए रखा।

परन्तु जो मुख्य बात थी कि सत्ता बदल तो गयी, परंतु कल तक जो वामपंथी झंडा उठा कर चल रहे थे वे ही अब तृणमूल के झंडे तले आ खड़े हुए। फलतः नतीजा वही रहा।

वहीं वर्तमान स्थिति की बात करे तो

क्लब और सिंडिकेट हर वार्ड में जो तय करती है कि उनके वोटर कैसे उन्ही के बने रहे।

बंगाल इतनी हत्याओं के दौर से गुजर चुका है कि अब राजनीतिक हत्याकांड से हतप्रभ नही होता।

बस तुलना भर होकर रह जाती है।

धान,जूट, चाय,कपास और आलू आदि फसलों की सुंदर एवम सकारात्मक भूगौलिक व्यवस्था होने के बाद भी किसान निराश है, परेशान हैं।

जमीन उपजाऊ होने के बाद भी किसान मजदूर यूनियन और सिंडिकेट के फसाद से ऊपर उठ नही पा रहे हैं।

औद्योगिक संरचना और आर्थिक ढाँचा भी खास नहीं है।ऐसा कोई निवेश नही है जो फिलहाल आर्थिक पलायन को रोक सके।

टाटा के नैनो प्रोजेक्ट का हश्र जो हुआ वह भुलाया नही जा सकता है।

स्वास्थ्य सेवाओं स्तर में कमी अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में अभी भी चिकित्सा सेवा कर्मियों की अच्छी खासी कमी है।
और बहाली बस चुनावी रैली तक सीमित है।

ऐसे परिवेश में इस बार बीजेपी की जोर आजमाइश के कई मायने दिखाई दे रहे हैं।

बंगाल को दो भागों में विभक्त कर अगर देखे तो उत्तर बंगाल और दक्षिण बंगाल दो महत्वपूर्ण क्षेत्र है।
उत्तर बंगाल जो कूचबिहार से लेकर मालदा एवम मुर्शिदाबाद तक है, वही दक्षिण बंगाल बीरभूम, बाँकुरा ,दुर्गापुर से कोलकाता तक का क्षेत्र।

उत्तर बंगाल के क्षेत्रों में जिस तरह से बीजेपी ने संसदीय चुनाव में बढ़त हासिल की है, इससे ममता बनर्जी की टीएमसी पार्टी एक तरह से परफॉर्मेंस प्रेशर में आ गयी है।

अगर लोगों की माने तो टीएमसी पार्टी में सेंधमारी की तैयारी में बीजेपी सालो से प्रयासरत है और इसी का नतीजा है कि पार्टी के कद्दावर नेताओ में भगदड़ मच रही है।

राजकीय परिवहन मंत्री रहे सुबेन्दू अधिकारी के इस्तीफे के बाद से लग रहे कयासों से ऐसा ही लग रहा है कि बंगाल बीजेपी दक्षिण बंगाल में ऐसे ही किसी चेहरे को प्रोजेक्ट करना चाहती है जिनका जनाधार अब भी बना हुआ है।

वैसे भी पार्टी विशेष के कार्यकर्ताओं के राजनीतिक हत्याओं के कारण दागदार होती छवि को निखारने के लिए बंगाल में पुलिस सेवा में खास राजबंशी समुदाय को रिझाने के लिए नारायणी रेजिमेंट कूचबिहार में, गोरखा समुदाय के लिए गोरखा रेजिमेंट दार्जीलिंग हिल्स एवम डुआर्स क्षेत्र में साथ ही जनमंगल रेजिमेंट आदिवासी समुदाय जिनकी अच्छी संख्या बाँकुरा, पुरुलिया, मेदनीपुर, दुर्गापुर आदि जगहों पर है उनके लिए बनाने का वादा स्वयं सूबे की मुखिया ममता बनर्जी ने हाल ही में किया है।

माना जाता है कि ममता बनर्जी के इस वादे से बीजेपी के वोटबैंक में अच्छी खासी सेंध लग सकती है।

यदि आम जन की माने तो चुनावी बम-बारूद के बीच फंसा बंगाल अब धरातल पर विकास चाहता है,रोजगार चाहता है,औद्योगिक निवेश चाहता है और साथ ही सांस्कृतिक विरासत के उसी सुनहरे दौर में लौटना चाहता है जहाँ बाउल गीत के दर्शन में छिपा सत्य हो …

साथ ही जहाँ टैगोर थे, सत्यजीत रे थे, जगदीश चन्द्र बोस थे, विवेकानंद थे, प्रभुपाद थे, कवि नजरुल इस्लाम थे।

सबसे ज्यादा पड़ गई