डॉ. सजल प्रसाद
वर्ष 1971 … हमारे किशनगंज शहर से पूरब नाक की सीध में महज 30 किलोमीटर की दूरी पर पूर्वी पाकिस्तान की सीमा लगती थी। बांग्ला संस्कृति के हिन्दू-मुस्लिमों के इस क्षेत्र में शेख़ मुजीबुर्रहमान रहमान की अगुवाई में मुक्ति वाहिनी के बैनर तले पाकिस्तानी हुकूमत और पाकिस्तानी सेना के आतंक के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छिड़ गया था। तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी के समर्थन में भारतीय सेना को उतार दिया था।
और, भारत के आर्मी जनरल मानेक शॉ की सेना ने अपना जौहर दिखाते हुए पाकिस्तानी फौज के करीब एक लाख सिपाहियों को बंदी बना लिया था। इसके बाद ही पूर्वी पाकिस्तान का यह इलाका आज़ाद हुआ और बांग्लादेश नामक एक नया मुल्क बना।
वर्ष 1962 में जब भारत-चीन युद्ध चल रहा था तो मेरा जन्म होने वाला था। माँ बताती है कि उन दिनों दहशत की काली छाया मँडराती रहती। फिर,1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ। तब मैं अबोध था। पर, युद्ध की छाया में ही बचपन गुजर रहा था। वर्ष 1971 में जब मैं जगन्नाथ स्कूल में तीसरी कक्षा में था तो, एक बार फिर भारत-पाकिस्तान युद्ध छिड़ गया था। इसके कारण आसमान में भारतीय सेना के फाइटर प्लेन उड़ान भरते रहते। हम सभी बच्चे आसमान में लड़ाकू विमान के गुजरने के बाद छल्लेनुमा धुएँ की लकीर को अपलक देखते रहते। पास में मनोरंजन क्लब की छत पर प्रशासन ने सायरन लगा दिया था। बाल-सुलभ उत्सुकतावश मैंने क्लब की छत पर इस सायरन की इंस्टालेशन नीचे खड़े होकर देखी थी। 3-4 साल पहले तक यह सायरन मशीन क्लब की छत पर ही रखी देखी थी।
किसी खतरे की आशंका होते ही यह सायरन बज उठता और सड़क के लोग अपने-अपने घर में ही छुप जाते थे। रात में सायरन बजते ही पूरे शहर में ‘ब्लैक आउट’ हो जाता। यानी, पूरे शहर की बिजली काट दी जाती। ऐसा इसलिए किया जाता था कि दुश्मन देश के फाइटर प्लेन को नीचे कोई रोशनी नज़र न आए और निर्जन इलाका जानकर दुश्मन बम न बरसाए।
उन दिनों एक अजीब-सी दहशत थी और रोमांच भी। मुझे याद है कि हम बच्चे भी मुक्ति वाहिनी को एक तरीके से नैतिक समर्थन दे रहे थे। घर से सटे प्रसन्न लाल दादा की किराना-दूकान पर लगे कैलेंडर में शेख़ मुजीबुर्रहमान की तस्वीर को देखकर मैं रोमांचित हो जाता था और उन्हें एक ‘रीयल हीरो’ मानकर मन ही मन सैल्यूट भी करता था।
…….. उस काली रात हम सभी अपने कमरे में सोये हुए थे। टीन की छत वाले हमारे कमरे का काठ का दरवाजा मामूली ढंग का ही था। काठ की ही कुंडी और काठ के ही एक डंडे से दरवाजा बंद किया जाता। टीन की छत वाले कमरे में लकड़ी के टेढ़े-मेढ़े तख्तों की दुछत्ती थी, जिसे आप आजकल के ज़माने की फॉल्स सीलिंग कह सकते हैं। दुछत्ती पर दादा-दादी के घर के कबाड़ और माँ को दहेज में मिले पुराने बर्तन रखे थे।
रात के करीब 11 बज रहे होंगे। अचानक एक जोरदार आवाज़ हुई। लगा जैसे कि हमारा कमरा पूरा हिल गया। टीन की छत और दुछत्ती पर रखे बर्तन ढ़नमना कर आवाज करने लगे थे। डर के मारे मैं बिस्तर पर उकड़ूं बैठ गया था। मेरी नज़र दरवाजे पर गई …. यकीन जानिए ! काठ का पुराना दरवाजा हिल रहा था ..जैसे बाहर से कोई दरवाज़ा पीट रहा हो !
तबतक माँ-बाबा भी जग गए थे। बाबा ने तेजी से उठकर दरवाजा खोला, किन्तु बाहर हमारे बड़े-से आँगन में कोई नहीं था। बाबा के पीछे-पीछे मैं भी बाहर निकल आया था। मेरा डर कम हो गया था और घटना की वजह जानने को उत्सुक था। दादा जी, बड़े बाबा और सभी चाचा भी कमरे से बाहर निकल कर आँगन में जमा हो गए थे। फिर, किसी ने मुख्य द्वार खोला और टार्च लेकर दरवाजे की तलाशी हुई। हमारा दरवाजा चौक पर पूरब में ठाकुरबाड़ी रोड और दक्षिण में धर्मशाला रोड से बिल्कुल सटा है। धमाके के बाद तबतक आस-पास के अन्य घरों के लोग भी सड़क पर आ गए थे।
थोड़ी देर में ही पता लग गया कि हमारे घर से बमुश्किल 300 मीटर की दूरी पर स्थित इन्दू टॉकीज़ में बम फटा है। कुछ लोग मरे हैं और दर्जनों घायल हैं। यह सूचना मिलते ही सभी दहशत में आ गए थे। दादा जी ने हम सभी बच्चों को कमरे में जाने की हिदायत दी। परंतु, मैं दादाजी की नज़र बचाकर दरवाजे से सटे उनके कमरे में ही खड़ा रहा था। वजह जानने की जिज्ञासा जो थी ! इस बीच कुछ हिम्मती लोग इन्दू टॉकीज़ की तरफ निकल पड़े थे।
उस हृदयविदारक घटना की रात इन्दू टॉकीज़ में वॉलीवुड की एक मशहूर फ़िल्म ‘सावन भादो’ चल रही थी। उस दिन का सेकेंड शो यानी रात के 9 से 12 बजे का अंतिम शो। उस फिल्म में नवीन निश्चल हीरो और मशहूर अदाकारा रेखा हीरोइन थी। फ़िल्म में एक दृश्य था कि कार में बम फटता है। आतंकवादियों ने सिनेमा हॉल के ग्राउंड फ्लोर में फर्स्ट क्लास की कतार में किसी सीट के नीचे टाइम बम फिट कर दिया था। बम ठीक उसी वक़्त फटा जब पर्दे पर चल रही फ़िल्म में कार में बम फटा। ऐसा इसलिए किया गया था कि सिनेमा हॉल में टाइम बम फटने की आवाज से दर्शक गच्चा खा जाएं और ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। यहाँ दुश्मनों की बम फटने की टाइमिंग सेट करने की फुलप्रूफ योजना की न चाहते हुए भी तारीफ करनी होगी।
हॉल का बड़ा दरवाजा टूटकर छिटक गया था क्योंकि दरवाजा अंदर खुलते ही फर्स्ट क्लास की ‘ए’ या ‘बी’ कतार की सीट के नीचे बम फटा था। इसके ठीक करीब 8 फीट ऊपर छत पर बॉलकनी और लेडीज़ सेक्शन था। यहां हमेशा मद्धिम रोशनी वाले बल्ब ही लगे होते थे। सिनेमा हॉल के दो-तिहाई हिस्से के मुकाबले इस एक तिहाई वाले निचले हिस्से में अपेक्षाकृत अंधेरा ज्यादा होता था, इसलिए दुश्मनों को बम फिट करने में आसानी हुई थी। बाद में, दरबान ने पुलिस को बताया था कि बम फटने के ठीक पहले एक दर्शक पेशाब करने के बहाने बाहर निकला, किन्तु फिर वापस अंदर नहीं गया। बताए हुलिए के मुतानिक पुलिस उस शख्स की तलाश करती रही, पर वह तो फुर्र हो चुका था।
…… इधर, सिनेमा हॉल में टाइम बम फटते ही चीख-पुकार मच गई थी। मुझे पक्का पता नहीं कि कितने लोग मरे। पर, कुछ लोगों की जान गई थी। खून बिखर गया था। दर्जनों दर्शक घायल हुए थे। भगदड़ के कारण भी कई दर्शक घायल हुए थे। पुलिस और यहाँ कैम्प कर रहे सेना के जवान भी मौके पर पहुँच गए थे। घायलों को निकटस्थ सरकारी अस्पताल में पहुंचाया गया था। मैनेजर माणिक दा तो शायद वहीं थे और थोड़ी देर में सिनेमा हॉल के मालिक शिवाजी बोस भी पहुँच गए थे।
इस लोमहर्षक घटना में बुरी तरह घायल हुए रिश्ते में मेरे एक चाचा (बाबा के खास मौसेरे भाई) प्रकाश चन्द्र साहा का बायां हाथ काटना पड़ा था और फुफेरी बड़ी बहन अंजलि दीदी के पति यानी बड़े बहनोई प्रह्लाद मोदी के कान के पर्दे फट गए थे और आजीवन वें इसी हाल में रहे। हाँ ! प्रकाश चाचा आज भी उस बम-विस्फोट के जीवित गवाह हैं और स्वस्थ हैं।
इन्दू टॉकीज़ में बम फटने के कुछ घंटे पहले खगड़ा और रामपुर के बीच रेलवे ट्रैक पर भी पाकिस्तानी फौज के सिपाहियों ने बम विस्फोट किया था। उसके बाद ही इन्दू टॉकीज़ में टाइम बम से विस्फोट कराया गया था। दरअसल पाकिस्तानी फौज को पता चल गया था कि मुक्तिवाहिनी के युवा लड़ाके किशनगंज में शरण लेते हैं, इसलिए पाकिस्तानी फौज ने किशनगंज में मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को टारगेट करने एवं दहशत फैलाने के लिए एक ही दिन सीरियल बम विस्फोट कराए थे।
पूर्वी पाकिस्तान में शेख़ मुजीबुर्रहमान ने ‘आमार सोनार बांग्ला’ का नारा देकर मुक्ति-संग्राम छेड़ दिया था। करो या मरो की स्थिति में मुक्तिवाहिनी के युवा गुरिल्ला युद्ध के लिए किशनगंज सहित निकटवर्ती बिहार और पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में प्रशिक्षण ले रहे थे। बिहार की राजधानी पटना के कई प्रखर नेताओं व संगठनों से उन्हें मदद मिलती थी।
किशनगंज में मुक्तिवाहिनी के युवाओं को शस्त्र विधा में निपुण व पहलवान सरीखी कदकाठी वाले पूर्व सांसद व समाजवादी नेता लखन लाल कपूर और बड़े जीवट व गठीली देह वाले महेन्द्र साहा उपाख्य ‘महेन्द्र मास्टर’ यहां शरण-प्रशिक्षण देते थे। ये लड़ाके मेरे घर के बगल में ही मनोरंजन क्लब में रहते थे। और भी कई जगहों पर इन्हें शरण मिलती थी। यद्यपि मैं बच्चा था पर, युवाओं की गतिविधियों पर उत्सुकतावश मेरी नज़र गड़ी रहती थी।
स्थानीय युवाओं की एक ‘थर्ड लाइन’ भी थी, जो किसी भी मदद के लिए खड़ी रहती। इन्हीं में शामिल थे अंग्रेजों के शासन काल मे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के खिताब से नवाजे जमींदार व नगरपालिका के चेयरमैन चंचल प्रसाद के बड़े पुत्र व फर्राटे से अंग्रेजी बोलने वाले गोपाल प्रसाद,अधिवक्ता एवं मेरे काका विजय प्रसाद। मेरे कॉलेज से सेवानिवृत्त लिपिक स्वपन दा ने भी मुझे बताया था कि वे अपने 20 साथियों व बेनी बाबू के साथ ट्रक में राशन सामग्री भरकर पूर्वी पाकिस्तान के बॉर्डर पहुंचे थे और सारा सामान भिजवाया था।
इन्दू टॉकीज में टाइम बम फटने के अगले ही दिन सूड़ी बस्ती के बड़े-बुजुर्गों के समक्ष गोपाल प्रसाद चाचा ने रहस्योद्घाटन किया था कि दरअसल मुक्तिवाहिनी के युवाओं ने इन्दू टॉकीज में ‘सावन-भादो’ फ़िल्म देखने की इच्छा जतायी थी और इसके लिए फर्स्ट क्लास की 15-16 सीटों वाली पूरी कतार बुक थी। शायद इसकी जानकारी पाकिस्तानी फौज के जासूसों को मिल गयी थी, इसलिए यहां टाइम-बम लगाकर विस्फोट कराया गया।
वे आगे बताते हैं कि यह संयोग ही था कि शो शुरू होने के दो घंटे पहले खगड़ा और रामपुर के बीच हुए बम विस्फोट की खबर सुनते ही मुक्तिवाहिनी के युवाओं के साथ वे सभी घटनास्थल पर पंहुचे थे और बाद में सिनेमा देखने का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया गया था। यदि सिनेमा देखने जाते तो उन सभी की मृत्यु निश्चित थी।
इस्लामपुर के रास्ते गोपाल चाचा व विजय काका अपने कई साथियों के साथ पूर्वी पाकिस्तान के अंदर भी गए थे। वहां उनका स्वागत मुरही और चाय से किया गया था। वहाँ के लोग ‘सुरजापुरी’ बोली में बातें कर रहे थे और गवालपोखर, इस्लामपुर, किशनगंज के जमींदार परिवारों से वाकिफ़ थे। गोपाल गोपाल चाचा व विजय काका अपने साथियों के साथ बलियाडाँगी के रास्ते ठाकुरगांव जाना चाहते थे। लेकिन, पाकिस्तानी फौज को खबर लग गई थी और इन लोगों की तलाश में निकल पड़ी थी , जिस कारण इन सभी को वहां से भागना पड़ा था। मेरे हैंडसम विजय काका बड़े दुस्साहसी हैं और वे समाजवादी नेता व पूर्व सांसद स्व. लखन लाल कपूर के सच्चे अनुयायी आज भी हैं।
इधर, गोपाल प्रसाद चाचा किस्सा सुनाते हैं कि जब पूर्वी पाकिस्तान को एक नए मुल्क ‘बांग्लादेश’ के रूप में पहचान मिली तो ढ़ाका में इसका जश्न मनाया गया था और महेन्द्र मास्टर साहब को विशेष रूप से आमंत्रित करके ढ़ाका बुलाया गया था। महेंद्र मास्टर जब ढाका से लौटे तो ‘थर्ड लाइन’ के उन जैसे सभी सहयोगियों के लिए मुक्तिवाहिनी ने ‘आमार सोनार बांग्ला’ लिखी टोपियाँ भिजवाई थीं। पर, अब गोपाल प्रसाद चाचा व विजय काका को इस बात का मलाल है कि जिस बांग्लादेश के गठन के लिए उनके जैसे युवाओं ने तन-मन-धन से मदद की थी …… वही बांग्लादेश अब भारत विरोधी रुख अपनाने से जरा भी गुरेज नहीं करता।
सम्प्रति :
एसोसिएट प्रोफेसर व
अध्यक्ष, हिंदी विभाग
मारवाड़ी कॉलेज, किशनगंज।





























