एक और आत्महत्याः 14 वीं मंजिल से कूदकर दिशा ने दी जान

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विनीत कुमार

बॉलीबुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की पूर्व मैनेजर और अब वरूण शर्मा की मैनेजर रहीं दिशा सानियन ने मलाड, मुंबई में चौदहवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली ( इंडिया टुडे ). दिशा यहां अपने मंगेतर के साथ रह रही थीं. हालांकि अभी तक आत्महत्या के कारण सामने नहीं आ पाए हैं.

पिछले दिनों जब मैंने मशहूर टीवी अभिनेत्री प्रेक्षा मेहता की आत्महत्या को लेकर पोस्ट लिखी थी तो आपमें से कई लोगों ने अपनी टिप्पणी में कई दूसरे संदर्भ और आत्महत्या को लेकर अपने विचार दिए थे. कुछ को मेरी बातों से यहां तक लगा कि मैं आत्महत्या को जायज़ ठहराने की कोशिश कर रहा हूं जबकि ऐसा न तो तब कहीं से था और न अभी ही है. हां ये जरूर है कि जितने चलताऊ ढंग से हम इस पर बात करते आए हैं, ऐसा करने से हमें बचना चाहिए.

समाज का छोटी ही सही लेकिन एक वर्ग तेजी से उभरा है जो कि रोटी, छत और शौक की झंझटों से लगभग मुक्त हो गया है. आप कह सकते हैं कि उसके आगे जिंदगी की बुनियादी समस्याएं नहीं हैं. लेकिन साथ में यह भी है कि उसने अपने साथ इतनी तरह की दूसरी-तीसरी महत्वकांक्षाएं पैदा कर ली हैं कि उसे पता तक नहीं चलता कि वो असल जिंदगी से कितना दूर एक बनावटी दुनिया में शामिल होता चला जा रहा है.

मैं अपने आसपास की दुनिया पर नज़र डालता हूं जो नए-नए लिबरल हुए हैं. जिन्होंने हाल की में एलिट क्लास में अपना पंजीकरण कराया है. कुछ ही महीने, साल पहले एक खास अदा से चाय, कॉफी, कूकीज, किताबें और डिस्कोर्स पर बात करनी शुरू की है. छोटे शहर का जीवन और उसके कारक अभी तक उनसे छूटे नहीं हैं, चौबीस घंटे की जिंदगी में घंटे-डेढ़ घंटे के लिए ही सही, वो छोटा और छूटा शहर याद आ ही जाता है, चीजें तय करने का वो कई बार पैमाना भी होता है और दूसरी तरफ एलिट क्लास की रस्साकीश जारी रहती है. इन दोनों स्थितियों के बीच एक अजीब तरह की बेचैनी, छटपटाहट और दुविधा बनी रहती है. आप गौर करेंगे तो हमारे-आपके जीवन में ये स्थिति एक खास तरह के खालीपन की तरफ ले जाती है. छूट चुके छोटे शहर का स्कूली दोस्त, चाहे लाख हुलसकर जुड़ना चाहे, हम उसकी हुलस में खुद को मिसफिट पाते हैं. स्ट्रा हिलाते हुए मॉकटेल-कॉकटेल पीते हुए एलिट-लिबरल होने में इधर कसर रह ही जाती है. एलिटिसिज्म वैसे भी चंद सालों में क्या एक पीढ़ी तक में कहां आ पाती है ?

आप जब भी सिनोन औप सार्त्र को पढ़ेंगे, एब्सर्डिटी जैसे शब्द से बार-बार टकराना होगा. सिनोम का माय ओन रूम हमें बहुत फैसिनेट करता है लेकिन उस रूम की एब्सर्डिटी पर हम चुप मार जाते हैं. हम असल जिंदगी में उसके साथ तारतम्यता स्थापित कर ही नहीं पाते. दिशा की आत्माहत्या की इस दुःखद घटना के बीच मेरी बात आपको भारी और ऊबाउ लग सकती है लेकिन हम तब भी इतनी बेसिक बात कहां समझ पाते हैं कि कई बार हमारी बाहर की दुनिया जितनी भव्य, विराट, समृद्ध और सुविधाओं से लैस दिखती है, हमारी भीतर की दुनिया उतनी ही खाली होती जाती है. छोटा शहर ड्राइंगरूम की सजावट में खप जाता है और एलिटिसिज्म की पंजीयन संख्या एक खास तरह की अजनबियत में नत्थी हो जाया करती है. हम कहां समझ पाते हैं कि जिंदगी भीड़ से नहीं, उन चंद लोगों से चलती है जिनसे कुछ भी कहा जा सकता है, कुछ भी मतलब कुछ भी. जिनके साथ ये सुविधा नहीं होती वो कभी प्रेक्षा तो कभी दिशा बनकर हम सचेत करके चुपचाप चली जाती हैं, जीने की दिशा खोज नहीं पातीं.

तस्वीर साभारः हिन्दुस्तान टाइम्स

विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से

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