तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
ये सवाल वो है कि जिस का अब कोई इक जवाब नहीं रहा :सहर अंसारी
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कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
ख़ाक में जब मिल गए दोनों बराबर हो गए :~शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते :~अख़्तर शीरानी
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कैसे थे लोग जिन की ज़बानों में नूर था
अब तो तमाम झूट है सच्चाइयों में भी :~जमील मलिक
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पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
सो गया मज़दूर तन पर बोरिया ओढ़े हुए :,~शारिब मौरान्वी
साभार : रेखता
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