बिहार : नए पारी को तैयार नए और पुराने खिलाड़ी

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सुशील

बिहार में सियासी घमासान के बीच इन दिनों सोशल मीडिया पर अच्छी खासी धमक बनाने की कवायद लगभग सभी नेताओं की देखी जा रही है।

कहीं कोई बाढ़ में फंसे लोगों को राहत सामग्री और पैसा बाट रहा है, तो कोई नेता जनता के बीच जाने के बजाय अपने परिवार सहित बाढ़ प्रभावित अपने निवास से निकल कर सुरक्षित स्थान पर अंडरग्राउंड होते दिख रहे थे।

इन्ही सब के बीच इस बार नई पारी खेलने उतरी
“पुलरल्स” की सोशल मीडिया प्रोमोशन खास तौर पर देखी जा सकती है।

“प्लुरल्स” की संस्थापक PPC यानी पुष्पम प्रिय चौधरी जो बिहार में जदयू के नेता विनोद चौधरी की पुत्री है, बिहार के जिलेवार विकास कार्य कैसे हो ? इस बात की रूपरेखा के साथ काले रंग के ड्रेस कोड में ही लोगों के बीच मेम्बरशिप ड्राइव और लक्ष्य रख रही हैं, फिलहाल लोगो के साथ बन रहे उनके संवाद के असर का निर्णय करना मुश्किल लग रहा है।

अभी हाल ही में राम मंदिर निर्माण पर बंधाई देने के मामले पर अपने कार्यकर्ता को धमकी देने के कारण हुई किरकिरी ने पार्टी के पीछे की विचारधारा को उजागर कर दिया है।

वही बिहार में लंबी पारी खेल चुकी राजद का मुख्य मुद्दा अभी भी जातिगत श्रेणी में ही लटका हुआ है, इनके मुखिया चारा घोटाले में सजा काट रहे लालू यादव के पारंपरिक वोट बैंक मुस्लिम+यादव(MY) समीकरण का बल भी विकास के मुद्दे पर कमजोर पड़ता दिख रहा है।

राज्य के उपमुख्यमंत्री पद को कसकर पकड़ बैठे बिहार भाजपा शायद यही अपनी नियति मान कर हर बार की तरह सुशाशन बाबू के छाव तले राजनीतिक गर्मी से बचने में लगे हुए हैं।

मामला साफ है कि बिहार में कोई चेहरा किसी भी पार्टी के पास नही दिखता जो हर मुद्दे को मात देकर मोदी लहर जैसे कुछ नए लहर को लहरा सके और जनता को कुछ नया देने का प्रयास कर सके।

बिहार जहाँ आर्थिक विषमता और इससे उत्पन्न पलायन, जातिवाद , बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे जस के तस पड़े हुए है।

आम निवासियों की माने तो जब तक राजनीति के मुद्दे नही बदलते बिहार की तकदीर नही बदलेगी।

चाहे महावीर के सूत्र हो या बुद्ध के धम्म उपदेश बिहार ने हमेशा संकीर्णता से ऊपर उठना सिखाया, विपरीत परिस्थितियों में जीना सिखाया ।

परंतु आजादी के बाद से नीतिगत शोषण और लूट ने बिहार को अंधकार का समानार्थी शब्द बना दिया।

इसी बात की कसक और बेबसी, बिहार के लोग कही भी रहे हमेशा महसूस करते रहे हैं।

यदि सत्यता पर ध्यान दे तो आम जनता को ऐसे मुद्दे पर प्रेरित ही नही किया गया जो सब को एक साथ, एक आवाज में ,एक ही लक्ष्य के लिए संगठित कर बिहार की काया पलट को बाध्य हो सकें।

जैसे जेपी जी ने किया था, शास्त्री जी ने किया हो , या इस माटी के अन्य विभूतियों ने किया हो।

शायद ऐसे ही किसी तारणहार के इंतजार में बिहार अपने सुनहरे दिनों के लौटने का राह देख रहा है।

फिलहाल तो यह देखना होगा कि इसबार के राजनीतिक उठापटक का फायदा जनता किसे देगी ?

बिहार जहाँ मुद्दे की कमी नही, लोकलुभावन स्कीमबाज,दलबदलुओं की भी कमी नही हो ऐसे में जातिवाद, बेरोजगारी, क्षेत्रीय मुद्दें इनसब के अलावा कौन से मुख्य बात पर वोट की बात हो?

यही प्रश्न शुरुआत से ही मुँह खोले तमाम राजनीतिक दलों के समक्ष खड़ा हुआ है ।

कोरोना महामारी और इससे उपजे कई सवालों के जवाब भी शायद आने वाले दिनों में बिहार इलेक्शन में देखने को सकते हैं।

बिहार : नए पारी को तैयार नए और पुराने खिलाड़ी